कवि की दुविधा
कवि अपनी कविताओं को कहाँ और कैसे सुनाये ?
इसके दो संशोधन भी प्रस्तुत हैं |
कवि की दुविधा
तुरत आईडिये पर जब कविता बनायी |
सुनाने बैठे तो पब्लिक न आयी |
घर पर सम्मेलन कर श्रोता बुलवाए |
सब सुनने वालों को कॉफी पिलवायी ||
जब यह कविता मैंने कुछ आई आई टी के मित्रगणों को लिख कर भेजी, तो जवाब में
एक संशोधन “अजित डोंगरे” द्वारा इस प्रकार से करके आया:
कवि की दुविधा और उसकी पूर्ति
तुरत आईडिये पर जब कविता बनायी |
सुनाने बैठे तो पब्लिक न आयी |
घर पर सम्मेलन कर श्रोता बुलवाए |
सब सुनने वालों को कॉफी पिलवायी ||
सब लोगों ने जब क़ाफ़ी पी ली |
हाँ, सात्विकों ने सिर्फ़ कॉफी पी |
तब सब पब्लिक कहे, वाह! वाह!
चाचा, यह तो बिल्कुल ही मलाई !!
तब “चाचा” को भी इसका दूसरा संशोधित संस्करण लिखना पड़ा, जो इस प्रकार से है:
कवि की दुविधा और उसके कुछ परिणाम
चट आईडिये पर जब कविता बनायी |
सुनाने बैठे तो पब्लिक न आयी |
घर पर सम्मेलन कर श्रोता बुलवाए |
सब सुनने वालों को कॉफी पिलवायी ||
कॉफी की मस्ती जब और रंग लाई |
श्रोता सब कवि बने, चाची भी आईं |
दुनिया भर की बातें, गरमा गरमायी |
कोई कहे चुटकुला, कोई कहे “ये महँगाई” ||
सारी समस्याएं गोष्ठी ने सुलझाईं |
गाथा “हिंदुत्व” की, लपेटे मुस्लिम ईसाई |
चाचा ने कान पकड़, तौबा की, भाई |
आगे से कभी न बुलाने की कसम खाई ||
एक विज्ञापन
बस एक ‘परासीतामोल’ और सरदर्द से आराम।
ना रहे पीड़ा ना रहे सर . . . बस एक . . . ॥